📰 महाराष्ट्र में हिंदी अनिवार्यता रद्द: सरकार के यू-टर्न ने जताई जनभावनाओं की कद्र
📌 प्रस्तावना
हाल ही में महाराष्ट्र सरकार ने विश्वविद्यालय स्तर पर हिंदी को अनिवार्य बनाने के फैसले पर विवाद बढ़ने के बाद “महाराष्ट्र में हिंदी अनिवार्यता रद्द” करने का निर्णय लिया। इस निर्णय ने एक बार फिर भाषा, पहचान और राजनीति के संवेदनशील मुद्दों को सुर्खियों में ला दिया है।
🗂️ निर्णय की पृष्ठभूमि
महाराष्ट्र के उच्च शिक्षा विभाग द्वारा एक अधिसूचना जारी की गई थी जिसमें राज्य के विश्वविद्यालयों में प्रथम वर्ष के छात्रों के लिए हिंदी को अनिवार्य विषय बनाने का निर्देश था। सरकार का दावा था कि यह निर्णय छात्रों को राष्ट्रीय स्तर की नौकरियों के लिए सक्षम बनाने के उद्देश्य से लिया गया।
🧨 कैसे भड़का विवाद?
1. मराठी संगठनों की आपत्ति
मराठी भाषा संगठनों और सांस्कृतिक समूहों ने इसे “मराठी अस्मिता पर हमला” कहा। उनका तर्क था कि राज्य में शिक्षा का प्राथमिक माध्यम मराठी है, ऐसे में हिंदी को अनिवार्य करना मराठी भाषा को कमजोर करेगा।
2. राजनीतिक दलों की तीखी प्रतिक्रिया
शिवसेना (उद्धव ठाकरे गुट), मनसे (राज ठाकरे), कांग्रेस, और एनसीपी जैसे दलों ने सरकार पर हिंदी थोपने का आरोप लगाया।
3. विद्यार्थियों और शिक्षकों का विरोध
मुंबई, पुणे, नागपुर सहित कई शहरों में कॉलेज छात्रों ने विरोध प्रदर्शन किए। सोशल मीडिया पर भी “#हिंदी_अनिवार्यता_रद्द_करो” जैसे हैशटैग ट्रेंड करने लगे।
🔁 फडणवीस सरकार का यू-टर्न
प्रचंड विरोध को देखते हुए, फडणवीस सरकार ने निर्णय को बदलते हुए कहा:
“हिंदी को अनिवार्य नहीं बनाया जाएगा। यह अब वैकल्पिक विषय के रूप में उपलब्ध रहेगी।”
यह घोषणा आधिकारिक रूप से राज्य के उच्च शिक्षा मंत्री द्वारा की गई।
🎓 शिक्षा नीति और भाषाई स्वतंत्रता
शिक्षाविदों का कहना है कि किसी भी भाषा को जबरदस्ती थोपना संविधान की भावना के खिलाफ है। संविधान के अनुच्छेद 350A में स्पष्ट किया गया है कि विद्यार्थियों को उनकी मातृभाषा में शिक्षा मिलनी चाहिए।
🔍 विशेषज्ञों की राय
डॉ. शैलेश पाटिल (शिक्षाविद)
“भाषा सीखना जरूरी है, लेकिन जबरदस्ती से नहीं। विद्यार्थियों को विकल्प मिलना चाहिए।”
सुजाता देशमुख (मराठी साहित्यकार)
“मराठी भाषियों की अस्मिता को दबाने का कोई भी प्रयास स्वीकार नहीं किया जाएगा।”
⚖️ राजनीतिक समीकरणों पर असर
फडणवीस सरकार के इस यू-टर्न का राजनीतिक असर भी देखा जा रहा है।
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भाजपा को मराठी वोटबैंक की नाराज़गी झेलनी पड़ी।
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विपक्षी दलों को मुद्दा मिला सरकार को घेरने का।
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यह फैसला आगामी निकाय चुनावों में भी गूंज सकता है।
🌍 राष्ट्रीय बनाम क्षेत्रीय पहचान की बहस
“हिंदी बनाम मराठी” की बहस केवल महाराष्ट्र तक सीमित नहीं है। यह पूरे भारत में क्षेत्रीय पहचान बनाम राष्ट्रीय भाषा की जंग को दर्शाता है।
“महाराष्ट्र में हिंदी अनिवार्यता रद्द” करना दर्शाता है कि क्षेत्रीय भाषाओं का सम्मान लोकतंत्र की आत्मा है।
📱 सोशल मीडिया पर माहौल
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ट्विटर पर “#MarathiFirst” और “#HindiHatao” जैसे ट्रेंड्स छाए रहे।
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फेसबुक और इंस्टाग्राम पर युवा वर्ग ने वीडियो और रील्स के ज़रिए अपनी नाराजगी जाहिर की।
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यूट्यूब पर शिक्षकों और छात्रों ने लाइव डिबेट की।
📊 जनमत क्या कहता है?
एक निजी सर्वे के अनुसार:
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68% लोग हिंदी को वैकल्पिक बनाए रखने के पक्ष में थे।
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24% लोगों ने कहा कि हिंदी भी उतनी ही जरूरी है।
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केवल 8% लोग हिंदी को अनिवार्य बनाए जाने के पक्षधर थे।
🧭 आगे की दिशा
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भाषाई संतुलन बनाए रखें
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मातृभाषा को प्राथमिकता दें
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छात्रों की सुविधा को ध्यान में रखा जाए
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राज्य की पहचान का सम्मान किया जाए
📌 निष्कर्ष
“महाराष्ट्र में हिंदी अनिवार्यता रद्द” होना केवल एक शैक्षणिक नीति परिवर्तन नहीं है, यह जनभावनाओं की जीत है। यह निर्णय बताता है कि भारत जैसे विविधता वाले देश में जबरन भाषा थोपना न तो व्यवहारिक है और न ही लोकतांत्रिक।
सरकारों को नीतियां बनाते समय केवल प्रशासनिक दृष्टिकोण नहीं बल्कि सांस्कृतिक और सामाजिक संदर्भों को भी ध्यान में रखना चाहिए।